अर्थशास्त्र >> भारतीय अर्थव्यवस्था भारतीय अर्थव्यवस्थाभरत झुनझुनवाला
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भारतीय अर्थव्यवस्था के पारम्परिक स्वरूप तथा वर्तमान में उदारीकरण और पाश्चात्य प्रभावों के अधीन होनेवाले कार्यक्रमों तथा नीतिओं का प्रभावशाली अध्ययन...
Bharatiya Arth Vyavastha a hindi book by Bharat Jhunjhunwala - भारतीय अर्थव्यवस्था - भरत झुनझुनवाला
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
अर्थव्यवस्था का भारतीय स्वरूप क्या है या क्या हो सकता है ? अर्थनीति की तेज़ी से बदलती भारत की वर्तमान परिस्थितियों में भारत को क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए ? उदारीकरण और विश्वीकरण के आज के माहौल में विदेशी योजनाओं का अनुकरण करने के स्थान पर क्या हम इनसे भी अच्छी कुछ योजनाएं प्रस्तुत कर सकते है ? ऐसे सभी प्रश्नों के उत्तर प्रसिद्ध अर्थनीति-विचारक भरत झुनझुनवाला ने इस पुस्तक में दिए हैं। बोधपूर्ण टिप्पणियों तथा आँकड़ों से भरपूर एक कठिन विषय की यह एक रोचक पुस्तक है।
प्रो. अमर्त्य सेन को नोबेल पुरस्कार प्राप्त होने के पश्चात उनकी आर्थिक स्थापनाओं पर जो व्यापक चर्चा आरम्भ हुई, यह पुस्तक उनकी भी भारतीय दृष्टि से समीक्षा प्रस्तुत करती है। साथ ही आर्थिक नीति संबंधी महात्मा गांधी के विचारों पर भी लेखक ने अपना मत व्यक्त किया है।
भरत झुनझुनवाला ने विज्ञान में स्नातक बनने के बाद यूनिवर्सिटी ऑफ फ्लोरिडा से कृषि अर्थशास्त्र में डॉक्टरेट की तथा बंगलौर के इंडियन इन्स्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट में अध्यापन कार्य किया। भारत के विकास तथा अर्थशास्त्र में रुचि रखने वाले सभी पाठकों तथा इन विषयों के छात्रों-अध्यापकों के लिए यह पुस्तक अत्यन्त उपयोगी है।
प्रो. अमर्त्य सेन को नोबेल पुरस्कार प्राप्त होने के पश्चात उनकी आर्थिक स्थापनाओं पर जो व्यापक चर्चा आरम्भ हुई, यह पुस्तक उनकी भी भारतीय दृष्टि से समीक्षा प्रस्तुत करती है। साथ ही आर्थिक नीति संबंधी महात्मा गांधी के विचारों पर भी लेखक ने अपना मत व्यक्त किया है।
भरत झुनझुनवाला ने विज्ञान में स्नातक बनने के बाद यूनिवर्सिटी ऑफ फ्लोरिडा से कृषि अर्थशास्त्र में डॉक्टरेट की तथा बंगलौर के इंडियन इन्स्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट में अध्यापन कार्य किया। भारत के विकास तथा अर्थशास्त्र में रुचि रखने वाले सभी पाठकों तथा इन विषयों के छात्रों-अध्यापकों के लिए यह पुस्तक अत्यन्त उपयोगी है।
आमुख
साधारण श्रेणी के मनुष्य को केवल रोटी, कपड़ा और मकान की चिन्ता रहती है। मध्यम श्रेणी के मनुष्य को अतिरिक्त सुख-साधनों को जुटाने की चिन्ता रहती है। उत्तम श्रेणी के मनुष्य को अपनी धनी स्थिति को बनाए रखने एवं और आगे बढ़ने की चिन्ता रहती है। सरकार, नियम, कानून, ग्रन्थ व शास्त्र मुख्य रूप से मध्यम श्रेणीवालों के लिए होते हैं और गौण रूप से उत्तम श्रेणीवालों के लिए है। साधारण श्रेणीवालों को सरकारादि किसी भी चीज से कोई मतलब नहीं रहता। इसलिए इस संसार में साधारण श्रेणी का शोषण मध्यम श्रेणी का शोषण उत्तम श्रेणी वाले करते आए हैं, करते हैं और करते रहेंगे। इसी शोषण के कारण हर व्यक्ति अपने को वंचित महसूस करता है। विकास के लिए आवश्यक है कि हर व्यक्ति इस ‘वंचना की भावना’ को त्यागे और अपने से उत्तम श्रेणी वालों की बराबरी करने का प्रयास करे।
इस पुस्तक के लेखक ने अवचेतन इच्छाओं की पूर्ति की बात की है। वास्तव में अवचेतन इच्छाओं को देखना आसान नहीं है। फिर भी यह कहा जा सकता है कि दरिद्रों की अवचेतन इच्छाओं को सामाजिक सम्मोहन से मिटाया नहीं जा सकता, केवल कुछ समय के लिए दबाया जा सकता है। ये इच्छाएँ इतनी प्रबल होती हैं कि बार-बार प्रकट होंगी। अत: नई-नई इच्छाओं को पैदा करने की अपेक्षा अवचेतन में निहित इच्छाओं को पहचानने की विधि को अपनाकर उसी इच्छा पूर्ति में लग जाना चाहिए।
वस्तुत: इस संसार के समस्त व्यवहार में सवाल व्यवस्था का है। अत: यह विचार करना है कि किस व्यवहार व्यवस्था को कौन सम्भाले और कौन उसका नियन्त्रण करे। प्रत्येक व्यवस्था के कर्ता एवं नियंता का सही ताममेल हो जाए तो मनुष्य सुखी हो सकता है। इतिहास में सरकार अथवा राजा जब-जब स्वयं व्यवस्था की कर्ता हुई है तब-तब समाज में अव्यवस्था हुई है। अत: सरकार को सदा नियंत्रक ही बने रहना चाहिए, किसी भी प्रकार (जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य बिजली, पानी, सड़क, शोधकार्य आदि) का व्यापार नहीं करना चाहिए। अपितु उन पर नियंत्रण बनाए रखना चाहिए। सार्वजनिक सुविधाओं की उपलब्धि सरकार निजी क्षेत्र द्वारा अपने नियंत्रण में करा सकती है।
लेखकों ने बेरोज़गारी समस्या का जो हल बताया है वह अत्युत्तम है। कार्य ही उपलब्धता से स्वाभिमान से युक्त सुख की प्राप्ति अवश्य होगी। इस व्यवस्था से समाज में जो असमानता अनिवार्य रूप से है उसको स्वीकार करते हुए भी सामाजिक न्याय संभव है। इस व्यवस्था में प्रत्येक व्यक्ति को जो भिन्न-भिन्न क्षमताएँ मिली हैं (जैसे पर्यावरण, सम्पत्ति, लिंग, मानसिक व शारीरिक क्षमता) उसी का विकास करने के प्रति प्रोत्साहित करना चाहिए।
देश का पिछड़ापन, सामाजिक अन्याय, वितरण में विफलता आदि का कारण है स्वार्थप्रधान उपभोगवाद। अनादि काल से समाज में असमानता रही है, फिर भी सभी सुखी थे। कारण यह था कि सभी एक-दूसरे का ख्याल रखते थे। असमानता को छुआछूत, साम्प्रदायिकता आदि की संज्ञा देकर अनर्थ हुआ है। जब तक इन कुरीतियों को मिटाया न जाएगा तब तक सामाजिक सुख, शान्ति एवं समृद्धि असंभव है।
भारत के इतिहास के उज्जवल समय पर दृष्टि डालकर विचार करते हैं तो लगता है कि किसी भी प्रकार के विदेशी निवेश (संस्थागत व प्रत्यक्ष) को कभी अवसर नहीं दिया गया था। कच्चे माल (संसाधनों) का निर्यात भी देश के हित में नहीं है। अत: वर्तमान में देश की आर्थिक स्थिति को सुधारने के लिए कच्चे माल का निर्यात एवं विदेशी निवेश पर पूर्ण रूप से प्रतिबन्ध लगाकर केवल सीमित मात्रा में उत्पादित माल के विदेशी व्यापार को बढ़ावा देना चाहिए। लेकिन साथ-साथ हर क्षेत्र में आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ने के लिए घरेलू उद्योग को भी प्रोत्साहन देना होगा ताकि अन्तराष्ट्रीय बाजार के उलट-फेर से उत्पन्न कुप्रभाव से देश पीड़ित न हो।
श्रमिकों के आवागमन के साथ-साथ मुद्रा की परिवर्तनीयता अच्छी है। सभी मुद्राओं को उचित स्थान प्राप्त होना चाहिए। यदि हम केवल डालर पर निर्भर रहेंगे तो निश्चित है कि अमेरिका को आर्थिक स्थिति लुढ़कते ही विश्व में आर्थिक संकट उत्पन्न हो जाएगा। एक राष्ट्र की तानाशाही भी कब तक बनी रहेगी ? विश्व की सुव्यवस्था के बने अनेक संगठन- संयुक्त राष्ट्र संघ, ग्रीनपीस, यूनिसेफ, नेटो, अंकटाड, विश्व बैंक, विश्व व्यापार संघठन, डब्लू.एच.ओ. इत्यादि- भी विकसित देशों के जेबी संघटन बन कर रह गए है। इस समस्या से निपटने का एक ही उपाय है कि विकासशील देश भिन्न-भिन्न माल उत्पादकों संघों-जैसे ओपेक-का गठन करें ताकि वे विकसित देशों पर अपना दबाव डाल सकें।
वर्तमान में एक विश्व, एक मत आदि कल्पना मात्र प्रतीत होता है। विकसित-विकासशील, अमीर-गरीब, प्रबल-दुर्बल आदि भेद इतने सुदृढ़ हैं कि सुधार लाना असंभव-सा लगता है। तथापि कहीं न कहीं से किसी न किसी को शुरू करना ही होगा। इसके लिए भारत स्वयं आरम्भ कर सकता है। इस दिशा में हमें निम्न कदम उठाने चाहिए :
(1) हर व्यक्ति को शिक्षा उपलब्ध कराएँ व आरक्षण समाप्त करें। समग्र देश में एक शिक्षा नीति व पाठ्यक्रम हो। प्राइवेट बोर्डों को समाप्त करें। (2) सरकार स्वयं व्यापार करना बंद करे व केवल नियंत्रक बनी रहे। (3) सरकार सार्वजनिक व्यवस्था को अपने हाथ में रखे, शेष को निजी क्षेत्र को सौंप दे। (4) विदेशी ऋण व विदेशी निवेश को समाप्त करें। (5) आत्मनिर्भरता के लिए प्रयास करें व घरेलू उघोग को प्रोत्साहन दें। (6) सामाजिक व पारिवारिक असमानता (जिसको मिटाना असंभव है) में संतुलन के लिए परस्पर सहयोग की प्रेरणा दें। इसके लिए दूरदर्शन, सिनेमा, आदि प्रचार माध्यमों का उचित उपयोग करें। (7) राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर माल उत्पादक संघों का गठन एवं विभिन्न प्रकार के कर्मचारियों के संघों का गठन हो। (8) आयकर को समाप्त करके अनेक प्रकार के उपभोक्ता कर लगाएँ। उन वस्तुओं पर अधिक कर लगाए जाएँ जो धनी अपनी सुख-सुविधा के लिए प्रयोग करते हैं। गरीबों द्वारा जीवन के लिए प्रयुक्त अति आवश्यक पदार्थों को करमुक्त कर दिया जाए। (9) रोज़गार उपलब्ध कराने हेतु निजी निवेशकों को प्रोत्साहित करें व स्वयं भी सरकार इस दिशा में योजना बनाए। (10) ग्रामीण विकास के अन्तर्गत ऐसी योजनाओं को लागू करें जिनसे नगर की ओर पलायन समाप्त हो और वहीं पर लोगों का जीवन स्तर उच्च हो सके। इसके लिए विशेषत: ग्रामीण उद्योग को बढ़ावा देना होगा।
आशा करता हूँ कि पाठकगण लेखक द्वारा दर्शाए गए धर्म के अनुरूप मार्ग पर चलकर देश की आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ करने के साथ-साथ विश्व शान्ति की स्थापना करने में अग्रसर होंगे। हरि: ऊँ तत्सत्।
इस पुस्तक के लेखक ने अवचेतन इच्छाओं की पूर्ति की बात की है। वास्तव में अवचेतन इच्छाओं को देखना आसान नहीं है। फिर भी यह कहा जा सकता है कि दरिद्रों की अवचेतन इच्छाओं को सामाजिक सम्मोहन से मिटाया नहीं जा सकता, केवल कुछ समय के लिए दबाया जा सकता है। ये इच्छाएँ इतनी प्रबल होती हैं कि बार-बार प्रकट होंगी। अत: नई-नई इच्छाओं को पैदा करने की अपेक्षा अवचेतन में निहित इच्छाओं को पहचानने की विधि को अपनाकर उसी इच्छा पूर्ति में लग जाना चाहिए।
वस्तुत: इस संसार के समस्त व्यवहार में सवाल व्यवस्था का है। अत: यह विचार करना है कि किस व्यवहार व्यवस्था को कौन सम्भाले और कौन उसका नियन्त्रण करे। प्रत्येक व्यवस्था के कर्ता एवं नियंता का सही ताममेल हो जाए तो मनुष्य सुखी हो सकता है। इतिहास में सरकार अथवा राजा जब-जब स्वयं व्यवस्था की कर्ता हुई है तब-तब समाज में अव्यवस्था हुई है। अत: सरकार को सदा नियंत्रक ही बने रहना चाहिए, किसी भी प्रकार (जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य बिजली, पानी, सड़क, शोधकार्य आदि) का व्यापार नहीं करना चाहिए। अपितु उन पर नियंत्रण बनाए रखना चाहिए। सार्वजनिक सुविधाओं की उपलब्धि सरकार निजी क्षेत्र द्वारा अपने नियंत्रण में करा सकती है।
लेखकों ने बेरोज़गारी समस्या का जो हल बताया है वह अत्युत्तम है। कार्य ही उपलब्धता से स्वाभिमान से युक्त सुख की प्राप्ति अवश्य होगी। इस व्यवस्था से समाज में जो असमानता अनिवार्य रूप से है उसको स्वीकार करते हुए भी सामाजिक न्याय संभव है। इस व्यवस्था में प्रत्येक व्यक्ति को जो भिन्न-भिन्न क्षमताएँ मिली हैं (जैसे पर्यावरण, सम्पत्ति, लिंग, मानसिक व शारीरिक क्षमता) उसी का विकास करने के प्रति प्रोत्साहित करना चाहिए।
देश का पिछड़ापन, सामाजिक अन्याय, वितरण में विफलता आदि का कारण है स्वार्थप्रधान उपभोगवाद। अनादि काल से समाज में असमानता रही है, फिर भी सभी सुखी थे। कारण यह था कि सभी एक-दूसरे का ख्याल रखते थे। असमानता को छुआछूत, साम्प्रदायिकता आदि की संज्ञा देकर अनर्थ हुआ है। जब तक इन कुरीतियों को मिटाया न जाएगा तब तक सामाजिक सुख, शान्ति एवं समृद्धि असंभव है।
भारत के इतिहास के उज्जवल समय पर दृष्टि डालकर विचार करते हैं तो लगता है कि किसी भी प्रकार के विदेशी निवेश (संस्थागत व प्रत्यक्ष) को कभी अवसर नहीं दिया गया था। कच्चे माल (संसाधनों) का निर्यात भी देश के हित में नहीं है। अत: वर्तमान में देश की आर्थिक स्थिति को सुधारने के लिए कच्चे माल का निर्यात एवं विदेशी निवेश पर पूर्ण रूप से प्रतिबन्ध लगाकर केवल सीमित मात्रा में उत्पादित माल के विदेशी व्यापार को बढ़ावा देना चाहिए। लेकिन साथ-साथ हर क्षेत्र में आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ने के लिए घरेलू उद्योग को भी प्रोत्साहन देना होगा ताकि अन्तराष्ट्रीय बाजार के उलट-फेर से उत्पन्न कुप्रभाव से देश पीड़ित न हो।
श्रमिकों के आवागमन के साथ-साथ मुद्रा की परिवर्तनीयता अच्छी है। सभी मुद्राओं को उचित स्थान प्राप्त होना चाहिए। यदि हम केवल डालर पर निर्भर रहेंगे तो निश्चित है कि अमेरिका को आर्थिक स्थिति लुढ़कते ही विश्व में आर्थिक संकट उत्पन्न हो जाएगा। एक राष्ट्र की तानाशाही भी कब तक बनी रहेगी ? विश्व की सुव्यवस्था के बने अनेक संगठन- संयुक्त राष्ट्र संघ, ग्रीनपीस, यूनिसेफ, नेटो, अंकटाड, विश्व बैंक, विश्व व्यापार संघठन, डब्लू.एच.ओ. इत्यादि- भी विकसित देशों के जेबी संघटन बन कर रह गए है। इस समस्या से निपटने का एक ही उपाय है कि विकासशील देश भिन्न-भिन्न माल उत्पादकों संघों-जैसे ओपेक-का गठन करें ताकि वे विकसित देशों पर अपना दबाव डाल सकें।
वर्तमान में एक विश्व, एक मत आदि कल्पना मात्र प्रतीत होता है। विकसित-विकासशील, अमीर-गरीब, प्रबल-दुर्बल आदि भेद इतने सुदृढ़ हैं कि सुधार लाना असंभव-सा लगता है। तथापि कहीं न कहीं से किसी न किसी को शुरू करना ही होगा। इसके लिए भारत स्वयं आरम्भ कर सकता है। इस दिशा में हमें निम्न कदम उठाने चाहिए :
(1) हर व्यक्ति को शिक्षा उपलब्ध कराएँ व आरक्षण समाप्त करें। समग्र देश में एक शिक्षा नीति व पाठ्यक्रम हो। प्राइवेट बोर्डों को समाप्त करें। (2) सरकार स्वयं व्यापार करना बंद करे व केवल नियंत्रक बनी रहे। (3) सरकार सार्वजनिक व्यवस्था को अपने हाथ में रखे, शेष को निजी क्षेत्र को सौंप दे। (4) विदेशी ऋण व विदेशी निवेश को समाप्त करें। (5) आत्मनिर्भरता के लिए प्रयास करें व घरेलू उघोग को प्रोत्साहन दें। (6) सामाजिक व पारिवारिक असमानता (जिसको मिटाना असंभव है) में संतुलन के लिए परस्पर सहयोग की प्रेरणा दें। इसके लिए दूरदर्शन, सिनेमा, आदि प्रचार माध्यमों का उचित उपयोग करें। (7) राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर माल उत्पादक संघों का गठन एवं विभिन्न प्रकार के कर्मचारियों के संघों का गठन हो। (8) आयकर को समाप्त करके अनेक प्रकार के उपभोक्ता कर लगाएँ। उन वस्तुओं पर अधिक कर लगाए जाएँ जो धनी अपनी सुख-सुविधा के लिए प्रयोग करते हैं। गरीबों द्वारा जीवन के लिए प्रयुक्त अति आवश्यक पदार्थों को करमुक्त कर दिया जाए। (9) रोज़गार उपलब्ध कराने हेतु निजी निवेशकों को प्रोत्साहित करें व स्वयं भी सरकार इस दिशा में योजना बनाए। (10) ग्रामीण विकास के अन्तर्गत ऐसी योजनाओं को लागू करें जिनसे नगर की ओर पलायन समाप्त हो और वहीं पर लोगों का जीवन स्तर उच्च हो सके। इसके लिए विशेषत: ग्रामीण उद्योग को बढ़ावा देना होगा।
आशा करता हूँ कि पाठकगण लेखक द्वारा दर्शाए गए धर्म के अनुरूप मार्ग पर चलकर देश की आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ करने के साथ-साथ विश्व शान्ति की स्थापना करने में अग्रसर होंगे। हरि: ऊँ तत्सत्।
स्वामी शान्तिधर्मानन्द सरस्वती
दो शब्द
आज औद्योगिक देशों में अप्रत्याशित भौतिक प्रगति के बावजूद मनुष्य विक्षिप्त जीवन जी रहा है। विकासशील देश अपनी संस्कृति की ताकत को समझे बिना इस पश्चिमी होड़ में लगे हुए हैं। विकासशील देशों के सामने चुनौती यह है कि अपनी संस्कृति के सही अंशों के बनाए रखते हुए आर्थिक प्रगति की ओर अग्रसर हों। इस पुस्तक का उद्देश्य इस दिशा में पहल करना है।
वर्तमान विश्व के प्रति दो अलग-अलग दृष्टिकोण अपनाए जा सकते हैं। एक दृष्टिकोण यह है कि औद्योगिक देशों को तकनीकी बढ़त हमेशा बनी रहेगी अत: देशों के बीच असमानता भी रहेगी। इस दृष्टिकोण में देशों के बीच व्याप्त असमानता को स्वीकार कर लिया जाता है और उसे कुछ कम करने पर बल दिया जाता है। दूसरे दृष्टिकोण में देशों के बीच समानता संभव हैं। मान्यता यह है कि औद्योगिकी देशों की वर्तमान तकनीकी बढ़त ज्यादा समय तक कायम नहीं रह सकती। जैसे-जैसे तकनीकों का फैलाव होगा, विकासशील देशों के लिए समानता हासिल करना संभव हो जाएगा। इस पुस्तक में हमने इस दृष्टिकोण को प्रस्तुत करने का प्रयास किया है।
इस विवेचन में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन की स्थापनाओं की विशद परख की गई है।
वर्तमान विश्व के प्रति दो अलग-अलग दृष्टिकोण अपनाए जा सकते हैं। एक दृष्टिकोण यह है कि औद्योगिक देशों को तकनीकी बढ़त हमेशा बनी रहेगी अत: देशों के बीच असमानता भी रहेगी। इस दृष्टिकोण में देशों के बीच व्याप्त असमानता को स्वीकार कर लिया जाता है और उसे कुछ कम करने पर बल दिया जाता है। दूसरे दृष्टिकोण में देशों के बीच समानता संभव हैं। मान्यता यह है कि औद्योगिकी देशों की वर्तमान तकनीकी बढ़त ज्यादा समय तक कायम नहीं रह सकती। जैसे-जैसे तकनीकों का फैलाव होगा, विकासशील देशों के लिए समानता हासिल करना संभव हो जाएगा। इस पुस्तक में हमने इस दृष्टिकोण को प्रस्तुत करने का प्रयास किया है।
इस विवेचन में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन की स्थापनाओं की विशद परख की गई है।
भरत झुनझुनवाला
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